ग़ज़ल

उनके पहलू के ही गद्दार से डर लगता है,
न छेड़ जख़्म सुर्ख़ धार से डर लगता है।

आज कुछ और है कुछ और था मगर कल वो,
उस के बदले हुए ब्यौहार से डर लगता है।

रंग और नूर का जब घर में कारवां उतरे,
हमको अपने दरो-दीवार से डर लगता है।

सुनो तो, रात हुआ वो भी हम बताते हैं,
छलके छलके तुम्हारे प्यार से डर लगता है।

कहाँ महफूज है ये दिल अजीब मुश्किल है,
अपने ही दिल के तलबगार से डर लगता है।

©A

2 thoughts on “ग़ज़ल

  1. बहुत सुन्दर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।
    सम्भल के चल तुझे कहीं नज़र न लग जाए।
    तेरी बढ़ती हुई रफ्तार से डर लगता है।

    वाह वाह वाह

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