ग़ज़ल
बहर
221,2121,1221,212
चलते थे कभी मिल के गई बात क्या करें,
बदले हैं आज तो मगर हालात, क्या करें।
ज़ज़्बात ने किया अजब उत्पात क्या करें,
देने लगे हैं दोस्त भी आघात क्या करें।
रिश्तों की डोर सहमते डर-डर के सँभाली,
बनते बिगड़ते हालते सदमात क्या करें।
होते उजास छा गई काली घटा घनी,
होने लगी है झूम के बरसात क्या करें।
आने लगा उन्हें यूँ सताने में अब मज़ा ,
सूझी हैं दिल को और खुराफ़ात क्या करें।
हम हैं कठोर भी तो हैं सरल भी हैं हम बहुत,
अपनी हमें पता तो है औकात क्या करें।
छूटा था उनसे हाथ भीड़ में किसी जनम,
फिर हो गई है आज मुलाकात क्या करें।
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