ग़ज़ल Gajal
मुँह में आंचल दिए वो यूँ ही अड़ी रहती है,
दर की चौखट पे मुंतज़िर सी खड़ी रहती है।
मेरे बस में नहीं था तुमसे बिछड़कर जीना,
एक उम्मीद की लौ मन में जली रहती है।
तेरी आहट को मैं पहचानती हूँ सदियों से,
तेरी धड़कन मेरे सीने से बसी रहती है।
कब तुझे भूल सकी याद नहीं है मुझको,
तेरी यादों की तो महफिल ही सजी रहती है।
तुझको पाकर जो मैंने पाई थी मंज़िल अपनी,
तुझसे बिछड़े हैं तो हर आस दबी रहती है।
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