कौम की बात पर सिहरता है,
काग़ज़ों में ही गुम है, लिखता है।
रात की क्या कहानियाँ कहते,
अब उजाला नज़र को चुभता है।
बात सच्ची जो हमने इक कह दी,
बस उसी वक्त से वो डरता है।
खेलता है लुका छिपी हम से,
हम को छुप के तका वो करता है।
जब से आँखें हैं उससे चार हुईं,
रूप उस दिन से कुछ निखरता है।
©A
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