ग़ज़ल
बहर
2122,1122,1122,22
अपने पहलू के ही गद्दार से डर लगता है,
छेड़ता जख़्म उसी यार से डर लगता है।
आज कुछ और है कुछ और था मगर कल वो,
उस के बदले हुए व्यवहार से डर लगता है।
मांगते जब भी मेरे घर मेरे बच्चे रोटी,
मुझको अपने दरो-दीवार से डर लगता है।
ये हक़ीक़त है तुम्हारी कि इक पहेली हो,
जो दिखावा लगे उस प्यार से डर लगता है।
कहाँ महफूज है ये दिल यार अज़ब है मुश्किल,
अपने ही दिल के तलबग़ार से डर लगता है।
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